Wednesday, October 26, 2011

राम का अंत


कमल का वो अधखिला फूल, मेरी उँगलियों से ऐसे गिर गया जैसे कुम्भकर्ण का शीश उसके धड से गिरा होगा| एक क्षण को आँखें नीचे करके मैं उस निस्सहाय, मृत जीवन को देखती रही, शायद दासी अभी अपने धृष्ट मज़ाक पर स्वयं ही हंस पड़ेगी... पर उसके नेत्र झुके रहे, नेत्र तो मेरे झुकने चाहिए थे| मेरे परमेश्वर, उनके सत्य की परिभाषाएं छोटी पड़ने लगी हैं| प्रिये और पत्नी के प्रेम का बस यही अर्थ रह गया है? विश्वास भी आज मेरे द्वार के परे कहीं सजल नेत्रों सहित खड़ा होगा|

छोटी ऊँगली से बंधा हुआ कुशा का तिनका मुझ पर हंस रहा है| सालों से मेरे सतीत्व का एकमात्र रक्षक, प्रमाण रहा अशोक वाटिका से यह मेरा अंतिम सखा है| आज यह एक मिथ्या मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा|

"जिस देव-पुरुष के लिए तुम सालों रुकी रहीं, जिसके लिए तुमने अपना सारा तेज मुझ पर न्योछावर कर दिया देखो आज वह तुम्हारी लाज की ही परीक्षा मांग रहा है| मुझे तो तुमने अपना अस्त्र बना कर अमर कर दिया, पर मैं इस कलंक से तुम्हारे पति के पत्नीव्रत की रक्षा कर पाऊंगा|"

मैं यह उपहास सुन सकी, "वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं..."

सारे आभूषण छूट रहे हैं| दर्प गर्त की ओर जा रहा है| जीवन-विस्मय क्षीण हो रहा है, विस्मय जीवन होता जा रहा है... सौंदर्य अर्थ हीन है|

"पुरुष की मर्यादा आज के बाद कभी आदरणीय नहीं होगी| आज अग्नि भी तुमको डरकर प्रवेश देने से सकुचाएगी कि कहीं तुम्हारी पवित्र देह को छूकर उसका ताप क्षीण पड़ जाए और आज सूर्य भी अस्त होने से पहले तुमसे इस अपमान के लिए क्षमा याचना करेगा|"

"सीता-राम प्रणय को मान-अपमान की कसौटी की क्या आवश्यकता?"

"कदाचित, सीता प्रणय को अग्नि परीक्षा देनी पड़ेगी..."

*

शाम हो चली है| पर पश्चिम में सूर्य-देव अभी भी तने बैठे है मानो मेरी चिता को अग्नि स्वयं ही देने को प्रणित हों| मेरा ह्रदय भारी हो रहा है| हे भगवान् रूद्र, हे माँ पार्वती, मुझे शक्ति प्रदान करें...

मेरे पाँव डगमगाते से दिख रहे होंगे| हाय! मैं यह क्या सोच रही हूँ? मेरा अस्तित्व दृढ़ है, उनका प्रेम भी निश्छल है - यह केवल मेरी नहीं, हम दोनों के ही प्रेम की परीक्षा है|

पर क्या वो अयोध्या को भूल गए जब प्रासाद के उद्यान भी हमारे प्रेम से बसंती हो उठते थे, जब पक्षी मानो हमारे प्रेम के ही कलरव गान गाते थे? क्या पंचवटी के प्रेमालिंगन अब उनकी चेतना से विस्मुख हो चले हैं? यहाँ मैं वर्षों से उनके बिछोह को ही तप मानकर जीती रही और वो इतने वर्षों के पश्चात मुझे अग्नि-सम्मुख मिलेंगे?

आह! मेरे पांव रक्तिम हो रहे हैं, लंका के काँटों का यह कदाचित मुझे अंतिम नमन है| असुर दासियाँ मेरे सम्मुख शीश झुकाए खड़ी हैं, दूर किसी कोप भवन से विधवाओं का रुदन स्वर मेरे गले को रुंध रहा है| आकाश मेरे सिन्दूर सा लाल हो रहा है, जैसे मेरा सिन्दूर ही जगत ने छिटक के नभ में बिखेर दिया हो| सामने एक मुकुटधारी सर झुकाए रो रहे हैं, वेशभूषा से तो असुर हैं, कदाचित यही महाराज विभीषण हैं| मेरे पदचाप सुनकर उनके हाथ नमन मुद्रा में गए हैं| मेरे आगे बढ़ने पर वह मेरे पीछे ही चल रहे हैं| दूर पर्वत की तराई में भीड़ खड़ी हैमेरी आँखें एक ही व्यक्ति पर हो रही हैं, मेरे आराध्य... कहाँ चले गए हैं आप?

प्रिये हनुमान अनुपस्थित हैं| वज्र सी काया वाला उनका फूल सा ह्रदय एक स्त्री की ऐसी मानसिक विस्थिति सह नहीं पाया होगा| लेकिन क्या उन्होंने अपने स्वामी को मेरे मानस से अवगत नहीं कराया होगा? क्या मेरे कष्टों को जानकार श्रीराम का ह्रदय फुट फुटकर रो न पड़ा होगा? और मेरा लक्ष्मण, मेरा पुत्र... क्या उससे भी अपनी भाभी माँ के चरित्र पर दोषारोपण रोका न गया होगा? वह दूर अपने घुटनों पर ही खड़ा है| रुदन उसको शोभा नहीं देता, वह क्षत्रिय है| जीवन-समर तो जीत चुका है, समाज-समर में सत्य की एक हार पर इतना क्षोभ? अपने अग्रज की आज्ञा परिपालन ही उसका परम धर्म है| वह तो दोषमुक्त है... पर अयोध्या लौटने के बाद क्या उर्मिला से भी वह अग्नि परीक्षा मांगेगा? हे उर्मिल...

एक और क्षोभ अश्रु मेरे नयनो से बह कर मेरे कपोल पर आ बैठा है, मुझे शीघ्रता से इसे पोंछ देना चाहिए| कहीं प्रिये का ह्रदय इस अश्रु को देख कर करुण न हो उठे...

सहसा वह मुझे दिख रहे हैं... वानरों, रीछों और असुरों से घिरे उनकी कान्ति तो तीनो लोकों को जला रही है| अस्त होता सूर्य भी उनके पश्चिमोन्मुखमुख के तेज को चुरा नहीं पाया है| उनके चरण धुल-धूसरित लंका की भूमि को धन्य कर रहे हैं| उनके कर शौर्य के घावों से ढके हुए हैं, जहाँ जहाँ उनका रक्त गिरेगा वहां से लाल रंगी हरसिंगार के फूल निकला करेंगे| काँधे पर तुणीर, और हाथ में धनुष शोभा को प्राप्त हो रहे हैं| उनके इस दर्शन के लिए में अनेकों बार अशोक वाटिका में जाने को प्रस्तुत हूँ| उनका निश्चय दृढ है, हमारा प्रेम कसौटियों के परे है... यह तो समाज की परीक्षा है|

सामने धरती पर सूखी कुषा और अधजली लकड़ी पड़ी है, अब मन में कोई संदेह नहीं है...

एक वानर आगे बढ़ता है, उसकी मशाल की लौ हवा में फडफडा रही है| वह मुझे देख कर हाथ जोड़ता है, उसके चेहरे से भोलापन अभी गया नहीं है... आज सबकी आंखों में आंसू हैं| उसका हाथ जीवन विहीन सा लगता है, मानों मशाल मनो भारी हुई जा रही हो... मशाल कुशा पर गिरकर अग्नि को प्रज्वलित कर देती है| मैं वानर को देखकर मुस्कराती हूँ, वह अपने अपराध की क्षमा याचना कर रहा है, मेरी मुस्कान से वह और विचलित हो कर वन की ओर भाग जाता है...

परीक्षा प्रत्यक्ष है, और उसके उस ओर प्रिये... मैं पिता जनक, पिता दशरथ, सारी माताओं का स्मरण करती हूँ| श्रीराम मेरी ओर मुड़ रहे हैं, हमारे नयन मिलते हैं और अग्नि समस्त ब्रह्माण्ड को ग्रसित कर लेती है| अब कुछ और शेष नहीं, बस प्रेम है| मैं हाथ जोड़कर अग्नि में प्रवेश करती हूँ...

आज सीता का पुनर्जन्म है, आज राम का अंत है|

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